Tuesday, November 30, 2010

वादे..!!


मैंने सुना है
अकेले में तुम अब भी रोती हो..
क्या तुम्हे दुःख है कि तुमने वादे तोड़े?
सुनो..
वादे तब टूटते हैं
जब प्यार मे किये जाएँ |
और
प्यार तो मैंने किया था

तुमने तो बस गलती की थी..!!
........................................

Thursday, November 18, 2010

विलोम..!!


खिलखिला कर तुम्हारा हँसना
और फिर कहना
"तुम मुझे बिलकुल पसंद नहीं"
और मैं मंद बुद्धि
हैरान परेशान यही कहता
कभी "हाँ" कभी "ना"
तुम्हारे जवाब
मुझे कभी समझ नहीं आते
फिर तुम धीरे से कहती

"कभी कभी विलोम शब्दों
के अर्थ भी एक हुआ करते हैं!!"

आज
इस रात
जब मैं अकेला बैठा हूँ
तो झिंगुरो कि आवाजों के बीच
सुनाई दे रही है
तुम्हारी वही हंसी..वही शब्द..वही बात..
पर अर्थ अब स्पष्ट है

मैं आज अकेला बैठा हूँ
पर अकेला हूँ नहीं
तुम वहाँ सबके साथ हो
पर शायद ...अकेले..!!

कभी कभी विलोम परिस्थितियों में भी
स्थितियां एक हुआ करती हैं..!!
..................................................................
Creative Commons License
This work is licensed under a Creative Commons Attribution-NonCommercial-NoDerivs 3.0 Unported License.

Saturday, February 6, 2010

I-4 / आई-४


घर के बरामदे मे लगे हुए
टाट के पर्दों से
छन कर आती हुई
मेरे बचपन की धूप..!!

और बरामदे से जुड़ता हुआ
वो शैतान आगन,
एक बात नही सुनता था
माँ के सोते ही
कड़ी धूप में
बचपन भुनाने निकल पड़ता..!!

उस आगन मे पिछली तरफ,
बल खाता हुआ कचनार का पेड़,
आगन की शैतानियों में
बराबर का हिस्सेदार,
न जाने कितनी चोटों के निशाँ
उसकी शैतानियों की गवाही
आज भी देते हैं..!!

कचनार के दूसरी तरफ,
एक बूड़ा चुगलखोर दरवाज़ा,
जिसपर इतने प्लास्टर
चढ़ चुके थे..की
हाथ लगाते ही चिल्लाने लगता..

और माँ जाग जातीं..!!

उस दरवाज़े के पीछे
छोटी छोटी मासूम क्यारियाँ
जहाँ न जाने कितनी
दोपहर बो रखीं हैं मैने..!!

उनकी बाईं ओर..
एक मदमस्त लॉन
जिसपर बारीकी से
देखने पर पता चलता था
की उसपर
कुछ ज़िंदगी के निशान बाकी हैं..
शायद
क्रिकेट की दीवानगी ने
उसे ऐसा बना डाला था..!!

और उस लॉन का रखवाला..
वो बूड़ा पीपल,
जिसपर इल्ज़ाम था,
की एक दिन वह
उस घर को गिरा देगा
जिसके साथ
वह बरसों से रहता आया है,
कुछ हुक्मरानो के आदेश भी आए थे..
...
सुना है उनके हुक्म की
तामील हो चुकी है..!!
.
पीपल के सामने से होते हुए
मेरे घर का दरवाज़ा आता था..
जिसके अंदर जाते ही
एक छोटा सा गलियारा,
और उसमे रखा एक
सुस्त टेलिफोन
जो हर आने जाने वालों को
सुस्त निगाहों से देखकर
फिर आँखें मूंद लेता..!!

उस छोटे से गलियारे के दूसरी तरफ,
एक और दरवाज़ा
जिसके पार
वही टाट का परदा
वही आगन
वही कचनार का पेड़..

बस फ़र्क़ इतना है,
की यह सब
अब मुझे नही पहचानते..!!
.............................