Sunday, February 14, 2010

चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों..!!


चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों,

चलो पहली तरह, उस ही जगह पर, फिर से मिलते हैं,
बहाने से किसी हम, और तुम फिर, साथ चलते हैं,
कि जाने पे ये बातों पर सबर हम दोनों रखते हैं,
न हम पलटें, न फिर पलटें और ना मुस्काएं हम दोनों,

चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों,

बहुत मासूम चेहरे से शरारत फिर से करना तुम,
कभी आँसू बहाकर के शिकायत मुझसे करना तुम,
कि सोने जाओ जब जाना, इनायत खुद पे करना तुम,
न तुम सोचो न मैं सोचूं न फिर घबराएं हम दोनों,

चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों,

कि खुद ही खेल मे तुमसे मेरा यूँ हार जाना फिर,
ख़ुशी से दस्त-ओ-बाजू पे जो मेरे मार जाना फिर,
ये कहकर,क्यूँ किया यह, और मेरे पास आना फिर,
ऐसा कहकर, झुकाकर सर, न फिर शरमायें हम दोनों,

चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों,

कभी मेरी कोई बातों पे तेरा टूट कर आना,
कभी यूँ खामखा मेरे, धुएँ पे रूठ कर जाना,
मेरा लड़ना, मेरी बातों, पे तेरा गौर ना करना,
झगड़ कर के, बिगड़ कर के, न फिर हंस जाएँ हम दोनों,

चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों,

न मुमकिन हो अगर जानां तो फिर कुछ ऐसा करते हैं
कि इस दुनिया में होकर अजनबी हम दोनों मरते हैं
और उसके बाद सब यादों को लेकर फिर से मिलते हैं..!!

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Saturday, February 6, 2010

I-4 / आई-४


घर के बरामदे मे लगे हुए
टाट के पर्दों से
छन कर आती हुई
मेरे बचपन की धूप..!!

और बरामदे से जुड़ता हुआ
वो शैतान आगन,
एक बात नही सुनता था
माँ के सोते ही
कड़ी धूप में
बचपन भुनाने निकल पढ़ता..!!

उस आगन मे पिछली तरफ,
बल खाता हुआ कचनार का पेड़,
आगन की शैतानियों में
बराबर का हिस्सेदार,
न जाने कितनी चोटों के निशाँ
उसकी शैतानियों की गवाही
आज भी देते हैं..!!

कचनार के दूसरी तरफ,
एक बूड़ा चुगलखोर दरवाज़ा,
जिसपर इतने प्लास्टर
चढ़ चुके थे..की
हाथ लगाते ही चिल्लाने लगता..

और माँ जाग जाती..!!

उस दरवाज़े के पीछे
छोटी छोटी मासूम क्यारियाँ
जहाँ ना जाने कितनी
दोपहर बो रखीं हैं मैने..!!

उनकी बाईं ओर..
एक मदमस्त लॉन
जिसपर बारीकी से
देखने पर पता चलता था
की उसपर
कुछ ज़िंदगी के निशान बाकी हैं..
शायद
क्रिकेट की दीवानगी ने
उसे ऐसा बना डाला था..!!

और उस लॉन का रखवाला..
वो बूड़ा पीपल,
जिसपर इल्ज़ाम था,
की एक दिन वह
उस घर को गिरा देगा
जिसके साथ
वह बरसों से रहता आया है,
कुछ हुक्मरानो के आदेश भी आए थे..
...
सुना है उनके हुक्म की
तामील हो चुकी है..!!
.
पीपल के सामने से होते हुए
मेरे घर का दरवाज़ा आता था..
जिसके अंदर जाते ही
एक छोटा सा गलियारा,
और उसमे रखा एक
सुस्त टेलिफोन
जो हर आने जाने वालों को
सुस्त निगाहों से देखकर
फिर आँखें मूंद लेता..!!

उस छोटे से गलियारे के दूसरी तरफ,
एक और दरवाज़ा
जिसके पार
वही टाट का परदा
वही आगन
वही कचनार का पेड़..

बस फ़र्क़ इतना है,
की यह लोग
अब मुझे नही पहचानते..!!
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