Sunday, December 14, 2008

मेरी डायरी... (नज़्म)


स्याही की दो बूँद चबा कर,
काग़ज़ ने अंगड़ाई ली,
की आज डायरी बड़े दिनो बाद खोली थी....

कुछ पन्ने पलटे उंगलियों से..
वक़्त की दीवार के पीछे झाँका
तो देखा
कुछ ग़ज़ले ऊंघ रही थी

जिन्हे तेरे जाने के बाद
मैने यहाँ पर रख छोड़ा था
पड़ता था ..
सहलाता था और खुश रखता था.

हिम्मत करके कुछ पन्नो को फिर से पलटा
सोचा देखूं जब तुझको लिखता रहता था,
वैसी ही हो या बदल गयी हो.

अब तक तो कितने ही जाले
उन ग़ज़लों पर बैठे होंगे
उनपर छोड़े थे जो चश्मे
सूखे होंगे ... खाली होंगे.

पर आँखों के सामने जो मंज़र आया
काँप गया मैं!!

तुझपर लिखी सारी ग़ज़ले सारी नज़मे
गुज़र चुकी थी...
बदहवासी में पन्ने पलटे जहाँ तहाँ लाशें ही लाशें

पर वो तुझपर लिखी पहली ग़ज़ल,
अपनी आख़िरी सासों में,
मेरी राह देख रही थी.
अशार से वो जा चुकी थी
बस मखते मे ज़िंदा थी.
उस पीले काग़ज़ पर उसको रखकर
आँखों पर उसके हाथ फेर कर
मखते से नाम हटा लिया
उसे जाने दिया.
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आज मेरी डायरी...
मेरी यादों की क़ब्रगाह है..!!
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Saturday, December 13, 2008

मेरी आँखें... (नज़्म)


हर ख़ुशी से गुज़र कर देखो हर ख़ुशी पर ठहर कर देखो,
सब रास्तों पर मिल जाएँगी तेरी आँखें मेरी आँखें,

हर सपने से गुज़र कर देखो हर सपने पर ठहर कर देखो,
सब रास्तों पर मिल जाएँगी तेरी आँखें मेरी आँखें,

हर ख्वाइश से गुज़र कर देखो हर ख्वाइश पर ठहर कर देखो,
सब रास्तों पर मिल जाएँगी तेरी आँखें मेरी आँखें,

तुमको इन सब बातों पर गर यकीन अभी भी नहीं हुआ तो,

अपने दिल के एहसासों के शहर में जाकर टहल कर देखो,
हर रस्ते पर खड़ी मिलेंगी तुझको तकती मेरी आँखें.
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Tuesday, December 9, 2008

वो एक मासूम सी बच्ची... (नज़्म)


वो एक मासूम सी बच्ची...

हाथों में गुब्बारे लिए,
उछल उछल कर चलती हुई,
चेहरे पर मुस्कराहट,
बिखरे हुए बाल,
और सपनो से भरी ऑंखें ।

बड़े रंग बिरंगे थे वो गुब्बारे,
जिसको देखो उसी को देख रहा था,
बच्चे पास आकर हाथ बड़ा देते,
और वो उनके हाथों में गुब्बारे पकड़ा देती,
अपने लिए एक भी नही रखा.....एक भी नही !!!

गुब्बारों के रंग उसको ललचा नही पाए?
या गुब्बारों से उसका मन भर चुका था?
उसका मन नही होता और बच्चों की तरह
वो भी उन्हें हवा में उड़ाए?
बड़ी अजीब लड़की थी वो !

मेरा मन परेशां होगया आज,
कोई जाकर उस बच्ची से वो सारे गुब्बारे,
खरीद कर उसको वापस देदे,
की जा खेल इनसे उड़ा दे सबको हवा में,
दबा कर फोड़ दे...जो करना है कर...

लेकिन.....

वो उन्हें फिरसे बेचेगी.......!!
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Saturday, December 6, 2008

साजिशें ! (नज़्म)

भूल न जाना...
की तू आतिश है,
और....
साजिशें कर रखी हैं
शरारों ने तेरे ख़िलाफ़,
तेरी हर नज़्म हर ग़ज़ल जला देंगे,

सुन यारा.......

ज़रा संभल कर पीना !

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ज़ब्त-ऐ-ग़म

जलती आँखों ने यह तो बता ही दिया,
की अश्कों में भी अंगारे छुपे होते हैं,

किसी ठोकर से तेरी याद चली आती है,
ठोकरों में भी सहारे छुपे होते हैं,

दाग चाँद के दिन में भी नज़र आते हैं,
खुशनसीब हैं जो तारे छुपे होते हैं,

लडखडाती दुनिया मुझे जलील निगाहों से न देख,
की क़दमों में भी इशारे छुपे होते हैं,

खांसता हूँ तो कुछ लम्हे छलक पड़ते हैं,
जो मेरे खून में बेचारे छुपे होते हैं,

चेहरे पर यह झूटी हसी जो रखता हूँ,
दर्द इसमे कुछ करारे छुपे होते हैं,

अब मेरे जाने के बाद ही फुर्सत से बातें होंगी,
खामोशी में लफ्ज़ बहुत सारे छुपे होते हैं,

पता चला जब ज़ब्त-ऐ-ग़म ने मुझे बीमार किया,
घर की दीवारों में भी नजारे छुपे होते हैं

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उफक आज खाली खाली सा है ! (नज़्म)


उफक आज खाली खाली सा है,
फलक बैठा है रूठा सा,
की ज़मीन अपने गावों गई है ।

पर जाते जाते कुछ बे-बुनियाद वादे किए हैं,
सोचेगी नही उन बूदों को जो गिरती थी फलक से,
भिगो देता था वो चंद अल्फाज़ गिरा कर,
खुश रहेगी वहां हसी के गुबार उड़ा कर ।

मुस्कुराएगी लेह लहाते खेतों की तरह,
बोएगी कुछ, खुशियों के लम्हात काटेगी,
की हर झरने को चश्म से अब दूर रखेगी,
आफत को हर कीमत पर बेनूर रखेगी ।

दिनों ने भी कुछ पल काटे इंतज़ार में,
फलक और सांझ खोये हैं आफताब की बातों में,
बाद-ऐ-सबा लिए शबनम एक पैगाम लायी है,
एक लम्हा जीकर ज़मीन वापस आई है

देखा उसे तो वादों के परखचे उड़ गए,
सूख गई है न शबनम है न बूदें हैं फलक की,
आँखों के नीचे काले काले साए मंडराते हैं,
कांपते होठों में कुछ उलझी सी गांठे हैं

आँखों में लिए अश्क फलक देखता ही रह गया,
रोम रोम टूटता है फलक के जिस्म का,
आँसू बहाए सांझ, घुल रही है फलक पे,
कुछ और भी रंग आज दिख रहें हैं शफक के

जुदाई की दरारों से भर गई है ज़मीन आज,
आँखों में आबला से रेगिस्तान के टीले हैं,
रोई है जार-जार वो फलक से यूँ लिपट कर,
आगई हो बाहों में पुरी कायनात सिमट कर

उफक अब घर जा चुका है,
फलक की गोद में ज़मीन लेती है सुकून से,
इन्हे अकेला छोड़ अब हम भी चलते हैं

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