Tuesday, March 23, 2010

कश्मीर..!!



सरहदें उस ओर भी इस ओर भी
खस्तगी उस ओर भी इस ओर भी
लड़ रहें हैं अब तलक आवाम दो
इन ज़मीनों को हमारा नाम दो

ऐसी आशुफ्तासरी किस काम की
इन दिमागों पर सलासिल क्यूँ पड़े..

जो तुम्हारे पास है वो तुम रखो
जो हमारे पास है वो हम रखें
इन ज़मीनों के ये झगडे छोड़ कर
अब कना'अत की भी कुछ बातें करें
यह ज़मीनें मिटटी पत्थर होके भी
यह ज़मीनें तख्ते सुल्तां हो गयीं |

इन ज़मीनों पर मरे जितने बशर
जोड़ लो दो गज ज़मीं उन सब कि फिर
अपने अपने लो बना कश्मीर फिर
फिकरे-बेशो-कम को ले झगडा करो
फासले ही फासले हो दरमियाँ
सरहदों पर सरहदें बनती रहें
एक दूजे को डरा के खुश रहें
हसती-ए-मौहूम पे नाज़ाँ करें |

ऐसी आशुफ्तासरी किस काम की
इन दिमागों पर सलासिल क्यूँ पड़े..

यह जिसे राजे सुकूं है कह रहें
दरअसल वो हादसों का खौफ है
कर गए बेबाक वो नज़रे तमाम
जो कभी बुर्के के पीछे हँसतीं थीं
जो कभी घूंघट में शर्मा जाती थीं
देखने भर से ही लर्जां जातीं थीं
फिर मुहाफ़िज़ की पड़ी ऐसी नज़र
झुक गयीं नज़रे तमाम शर्म से
हो गयीं बंज़र तमाम इज्ज़तें |

ऐसी आशुफ्तासरी किस काम की
इन दिमागों पर सलासिल क्यूँ पड़े..

जब मुसलसल हादसे होते गए
खुशबु-ए-बारूद फ़ैली दूर तक
उस जहाँ के लोग भी आने लगे
शिर्कतें औरों की भी बड़ने लगीं
एक क्या चरखो सितारा* कम न थे
जो यकबयक पन्द्रा सितारे* जल उठे!!
हमने भी उनको ये इज्ज़त सौंप दी
करना है जो तुमको कर लो, अबतलक
हम बरहना थे नहीं पर हो गए

आने वाली नस्ल जब ये पूछेगी
चर्ख पे इतने सितारे क्यूँ है अब
चाँद लालो नीला* कैसे हो गया
तब निसाबों मे बताया जाएगा
हाल अबका सब सुनाया जायेगा
तब गुले दियार भी ये बोलेंगे

ऐसी आशुफ्तासरी किस काम की
उन दिमागों पर सलासिल क्यूँ पड़े??

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*चरखो सितारा -- भारत और पाकिस्तान
*पन्द्रा सितारे - अमरीका
*लालो नीला - लाल और नीला
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आशुफ्तासरी, खस्तगी -- पागलपन
सलासिल -- बेड़ियाँ, ज़ंजीर
कना'अत -- संतोष
तख्ते सुल्तां -- बादशाह का सिंहासन
फिकरे-बेशो-कम -- कम ज्यादा की चिंता
हसती-ए-मौहूम -- भ्रममूलक अस्तित्व
नाज़ाँ -- गर्व
लर्जां -- कांपना
मुहाफ़िज़ -- रक्षक
गुले दियार -- देश के फूल
चर्ख -- चक्र
बरहना -- निर्वस्त्र
निसाबों में -- पाठ्यक्रम में