उसके हुस्न ओ अदा पर मैं कैसे लिखूं
उसके रुखसार पर चाँद का नूर था
उसकी आँखों का काजल था काली घटा
जब मैं लिखने गया तो कुछ एसा हुआ
वो घटायें भी बह चाँद पर आगयीं
ये कलम जो रुकी तो रुकी रह गयी
उसके हुस्न ओ अदा पर मैं कैसे लिखूं
वो कोई खाब थी उसकी ताबीर थी
वो हकीकत नहीं थी कोई हूर थी
जब मैं लिखने गया तो कुछ एसा हुआ
वो हकीकत सी बन सामने आगई
ये कलम जो रुकी तो रुकी रह गयी
उसके हुस्न ओ अदा पर मैं कैसे लिखूं
संगेमरमर का एहसास कैसे लिखूं
वो मोहब्बत वो इखलास* कैसे लिखूं
उसका होना मेरे पास कैसे लिखूं
अब यही सोच कर मैंने रख दी कलम
हुस्ने जाना की तारीफ़ मुमकिन नहीं..!!
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इखलास -- प्यार
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7 comments:
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भावुक रचना
वाह जी वाह गज़ब के भाव भरे हैं……………बहुत सुन्दर लिखा है।
उसके हुस्न ओ अदा पर मैं कैसे लिखूं
itna likhne ke baad bhi.....:)
ek achchhi rachna....
बहुत बेहतरीन!
माशाअल्लाह! क्या हुस्न है… अशिक़ की नज़र से तो उसका बयान वैसे भी मुमकिन नहीं...
how to comments
वो हक़ीकत सी बन
सामने आ गई,
ये कलम जो रुकी तो
रुकी रह गई।
बहुत अच्छे शब्दोँ मेँ
अभिव्यक्ति की
कठिनाइयोँ को व्यक्त
किया हैँ,आपने।
बधाई
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